एक लाख से अधिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे

right to education
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एक लाख से अधिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे

भारत में एक लाख से अधिक स्कूल सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में पेश रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की हालत सबसे बुरी है।

वर्तमान में देश में एक लाख पांच हजार 630 प्राथमिक और माध्‍यमिक स्‍कूल ऐसे हैं जहां केवल एक शिक्षक पूरी स्‍कूल की सभी कक्षाओं को पढ़ा रहा है। सबसे खराब स्थिति मध्‍यप्रदेश की है, यहां 17 हजार 874 ऐसे स्‍कूल हैं। यह भी सरकारी आंकड़े हैं, जमीनी तौर पर स्थितियां इससे भी बदतर हो सकती हैं। शिक्षण व्‍यवस्‍था एवं अन्‍य कार्यों के लिए शिक्षकों के उपयोग के चलते बहुत सी स्‍कूलों पर शिक्षकों के अभाव में ताला जड़ा भी मिल सकता है। उत्‍तरप्रदेश में 17 हजार 602 और बिहार में 3 हजार 708 स्‍कूलों में एक शिक्षक वाली स्थिति ही है। देश की राजधानी दिल्‍ली के भी 13 सरकारी स्‍कूल ऐसे हैं जहां केवल एक शिक्षक पूरी स्‍कूल को चला रहा है।

ये रिपोर्ट भारत में स्कूली शिक्षा की काफी बदहाल तस्वीर पेश करती है। अगर आजादी के 70वें साल में भी भारत में स्कूली शिक्षा को पटरी पर नहीं लाया जा सका है तो ये एक बेहद शोचनीय स्थिति है। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि एक अकेला शिक्षक भला पूरे स्कूल को कैसे चलाएगा। जब वो किसी एक कक्षा को पढ़ाता होगा तो बाकी कक्षाओं में क्या होता होगा या कि पहली से लेकर आठवीं तक सभी बच्चे किस तरह एक ही साथ पढ़ाए जाते होंगे। ऐसे में अध्यापक कितनी जिम्मेदारी से पढ़ा पाता होगा और छात्रों की भी क्या प्रेरणा रह जाती होगी और वो क्या पढते-समझते होंगे।

भारत में शिक्षा समवर्ती सूची में है और हर सरकार की ये जिम्मेदारी है कि वो सुचिंतित ढंग से शिक्षा का अधिकतम प्रसार करे. लेकिन इस रिपोर्ट से साफ है कि शिक्षा को लेकर सरकारें गंभीर नहीं हैं। ये विडंबनापूर्ण स्थिति इसलिए है क्योंकि नीति और उसे लागू करने के बीच काफी बड़ी खाई है। शिक्षा के प्रसार के लिए जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम लाया गया उसके अनुसार छात्र-शिक्षक अनुपात प्रति 30-35 छात्रों पर एक शिक्षक का होना चाहिए। कई बार मीडिया में ऐसी खबरें भी सुर्खियों में आती हैं कि किसी स्कूल में चार शिक्षकों की तैनाती है और उसमें सिर्फ एक या दो बच्चे पढ़ते हैं। किसी भी लोकतंत्र के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय हैं। संयुक्त राष्ट्र ने जो सहस्त्राब्दी लक्ष्य तय किए हैं उनमें शिक्षा भी एक है।

केंद्र सरकार की एक प्रमुख शैक्षणिक संस्था, एनसीईआरटी और गैर सरकारी संगठन “प्रथम” ने स्कूलों और सीखने की गुणवत्ता पर एक सर्वेक्षण किया जिससे हताश कर देने वाले आंकड़े सामने आए। इस रिपोर्ट के अनुसार आठवीं कक्षा के 25 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो दूसरी क्लास की किताबें पढ़ नहीं पाते हैं। दूसरी क्लास के 32 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो हिंदी अंग्रेजी की वर्णमाला ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं। पांचवीं क्लास के 50 प्रतिशत से अधिक बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने वे बुनियादी कौशल भी नहीं सीखे हैं जो उन्हें दूसरी क्लास में ही सीख लेने चाहिए थे। इससे भी अधिक आठवीं के आधे से अधिक बच्चे बुनियादी गणित करने में भी सक्षम नहीं बन पाए हैं। यही कारण है कि अधिक से अधिक लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना चाहते हैं। इसका लाभ उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर निजी स्कूल खुलते जा रहे हैं लेकिन उनकी गुणवत्ता को लेकर भी विवाद रहा है।

दरअसल देश को एक नई शिक्षा नीति की जरूरत है। 1986 की शिक्षा नीति भारत में शिक्षा की मार्गदर्शक है। इस नीति की समीक्षा करके 1992 में इसे अपना लिया गया और आज भी यही लागू है। जबकि भारत के आर्थिक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इन 24 वर्षों में व्यापक बदलाव आया है। उदारवादी आर्थिक नीतियों और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के आग्रह में सरकारें सामाजिक दायित्वों से मुंह मोड़ रही हैं और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषय उनकी प्राथमिकता नहीं रह गए हैं। इतने बड़े पैमाने पर सरकार ने अपनी बुनियादी जवाबदेहियों का पीपीपीकरण कर डाला है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) का ये सरलीकृत फार्मूला, दिख ही रहा है, विफल हो रहा है और शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों में इसकी नाकामी जगजाहिर हो चुकी है। इस सबके बीच से एक चुभने वाला सवाल उभरता है कि आखिर वोट देकर ऐसी सरकारें चुनने का क्या औचित्य है जो बच्चों को शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार तक मुहैया नहीं करा पाए।